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बड़ी-बड़ी दमदार आंखों वाले खलनायक के. एन. सिंह

  • 01-Sep-2020
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जयंती पर विशेष
पुरानी फिल्मों में खलनायकों का अहम किरदार हुआ करता था। अब भी फिल्मों में ऐसे किरदार मिल जाते हैं, लेकिन समय के साथ किरदार और उनका प्रस्तुतिकरण दोनों बदल गए हैं। 40 से 60 के दशक में ब्लैक एंड व्हाइट फिल्मों के मशहूर विलेन हुआ करते थे के. एन सिंह। बड़ी-बड़ी आंखें, रौबदार चेहरा , संवाद अदायगी का अपना खास अंदाज। वे बिना नाटकीयता की संवाद अदायगी और आंखों से ऐसा माहौल पैदा करते थे, कि लोग डर जाया करते थे। ये खासियत उन्हें सब लोगों से अलग बनाती थी। आज उनकी जयंती है। इस मौके पर आज उनसे जुड़ी कुछ बातों को हम ताजा कर रहे हैं। उन्होंने 2 सौ से अधिक फिल्मों में काम किया।
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के. एन. सिंह का पूरा नाम है कृष्ण निरंजन सिंह। उनका जन्म 1 सितंबर, 1908 को देहरादून में हुआ था। उनके पिता चंडी दास एक जाने-माने क्रिमिनल लॉयर थे और देहरादून में कुछ प्रांत के राजा भी थे। कृष्ण निरंजन भी उनकी तरह वकील बनना चाहते थे , लेकिन अप्रत्याशित घटना चक्र से उनका वकालत से मोह भंग हो गया। अभिनेता के रूप में लोकप्रिय होने से पहले के. एन. सिंह वेट लिफ्टर और गोला फेंक के उम्दा खिलाड़ी हुआ करते थे। वे 1936 के बर्लिन ओलंपिक के लिए मेहनत कर रहे थे, लेकिन वे इसका हिस्सा नहीं बन पाए, क्योंकि उस वक्त कोलकाता में उनकी बहन काफी बीमार थी। बहन के लिए के. एन. सिंह ने अपना खेल कॅरिअर दांव पर लगा दिया। शायद यह उनकी किस्मत थी, जो उन्हें बर्लिन जाने से रोक रही थी। उन्हें एक अभिनेता के रूप में नाम जो कमाना था।
इसी दौरान कोलकाता में उनकी मुलाकात पृथ्वीराज कपूर से हुई और उन्होंने देबकी बोस से उन्हें मिलवाया। देबकी बोस की बांगला फिल्म सुनहरा संसार (1936)में काम करने का मौका के. एन सिंह को मिल गया। कैमरे का जादू उन्हें इतना पसंद आया कि वे मुंबई के ही होकर रह गए। फिल्म बागवान (1936) में उन्होंने लीक से हटकर खलनायक का किरदार निभाया, जो काफी पसंद किया गया। इस तरह से खलनायक के रूप में उनकी एक सफल पारी की शुरुआत हुई। फिर तो फिल्मों का सिलसिला चल निकला। हुमायूं, आवारा, चलती का नाम गाड़ी, हावड़ा ब्रिज, हाथी मेरे साथी, बाजी, वो कौन थी जैसी फिल्में उन्हें मिली। देखते ही देखते वे अपने दौर के सबसे महंगे खलनायक बन गए। 60-70 के दशक के आते-आते दूसरे खलनायकों की लोकप्रियता ने के. एन. सिंह को चरित्र भूमिकाओं तक सीमित कर दिया। फिर एक दिन ऐसा भी आया कि कैमरे की चकाचौध का सामना करने के लिए उनकी आंखों ने जवाब दे दिए और उनकी आंखों की रोशनी चली गई। अंतिम दिनों में वे अपनी फिल्मों को देखने में अक्षम हो गए थे। 31 जनवरी 2000 को 91 साल की उम्र में उनका निधन हो गया। उन्होंने अपने अभिनय से फिल्मी दुनिया में एक ऐसी सुनहरी लाइन खींच दी है, जिसकी चमक बरसों बरस तक फीकी नहीं पड़ेगी। हिन्दी फिल्म जगत में जब भी खलनायकों की बात चलेगी, तो के. एन. सिंह का नाम बड़े अदब से लिया जाएगा।
निजी जिंदगी की बात करें, तो के. एन. सिंह की कोई औलाद नहीं हुई तो उन्होंने अपने भाई विक्रम सिंह जो काफी बरसों तक फिल्म फेयर पत्रिका के संपादक रहे, के बेटे पुष्कर को गोद लिया था। आज पुष्कर का अपना होम प्रोडक्शन हाउस है और वे सीरियलों के निर्माण में व्यस्त हैं।